वर्ण व्यवस्था और जाति भेद : ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से सामाजिक समरसता तक

वर्ण व्यवस्था और जाति भेद

वर्ण व्यवस्था और जाति भेद: एक विश्लेषण

भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था और जाति भेद का प्रश्न सदियों से एक महत्वपूर्ण और विवादास्पद विषय रहा है। रामधारी सिंह दिनकर की पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में इस विषय को ऐतिहासिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से समझाने का प्रयास किया गया है।

प्राचीन भारत में वर्ण और जाति

आर्यों के भारत आगमन के समय जाति प्रथा का अस्तित्व था या नहीं, इस पर इतिहासकारों में मतभेद हैं। परंतु, यह स्पष्ट है कि समाज को व्यवसायों के आधार पर विभाजित करने की परंपरा केवल भारत में ही नहीं, बल्कि कई अन्य प्राचीन सभ्यताओं में भी थी। ईरानी समाज में भी चार जातियाँ थी इसका उल्लेख पारसी में किया गया है। यूनान के दार्शनिक प्लेटों ने भी मनुष्यों की चार जातियों का उल्लेख किया है।

भारतीय साहित्य में ‘वर्ण’ शब्द का प्रयोग पहले मिलता है, जबकि ‘जाति’ शब्द का उल्लेख बाद में आया। इससे यह संकेत मिलता है कि प्रारंभ में समाज का विभाजन मुख्य रूप से व्यवसाय और स्वभाव के आधार पर था, न कि जन्म के आधार पर।

रंग-भेद और वर्ण व्यवस्था

ऐसा माना जाता है कि वर्ण व्यवस्था रंग-भेद पर आधारित थी, लेकिन यह धारणा ऐतिहासिक रूप से गलत सिद्ध होती है। महाभारत में वर्णों के रंगों का उल्लेख अवश्य मिलता है, परंतु अन्य ग्रंथों में इसका कोई विशेष समर्थन नहीं मिलता। वर्ण व्यवस्था का निर्धारण मुख्य रूप से व्यवसाय और स्वभाव के आधार पर किया गया था। बाद में, जब जातिवाद ने अपना प्रभाव बढ़ाया, तो वर्ण व्यवस्था भी जन्म पर आधारित होने लगी। डॉ अंबेडकर ने शोधपूर्वक यह मत निरूपित किया है कि वेदों से यह प्रमाणित नहीं होता कि आर्यों का रंग दासों के रंग से भिन्न था।

ऋग्वेद और जातीय विभाजन

ऋग्वेद में समाज के लिए ‘विश’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ बसने वाला होता है। वैश्य शब्द ऋगवेद में नहीं है। ऋग्वेद के अनुसार समाज का वर्गीकरण केवल तीन वर्णों—ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य—तक सीमित था। ‘शूद्र’ शब्द का उल्लेख केवल पुरुष-सूक्त में मिलता है, जिसे कई विद्वान बाद की रचना मानते हैं।

इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि शूद्रों को समाज में तिरस्कृत नहीं माना जाता था और वे भी समाज के अन्य वर्गों के समान ही कार्य करते थे। ऋग्वेद में तीन ही वर्ण हैं, शूद्र को चौथे वर्ण के रूप में वहाँ गिना नहीं गया है। शतपथ ब्राह्मण और तैत्तिरीय ब्राह्मण भी तीन ही वर्णों की स्थिति बतलाते हैं। ऐसी अवस्था में यह मानने का क्या आधार हो सकता है कि इन तीन वर्षों के सिवा, आर्यों के समाज में बहुत-से ऐसे भी लोग थे, जिन्हें आर्यों ने कोई नाम नहीं दिया था?

इससे अधिक युक्ति-युक्त सम्भावना यही हो सकती है कि शुद्र भी, किसी-न-किसी प्रकार के, द्विज थे और उनका स्थान, घट-बढ़कर, क्षत्रियों के ही समान था। इस सम्भावना को कुछ अतिरिक्त बल इस बात से भी मिलता है कि “कर्म-सादृश्य या स्वभाव-साम्य के आधार पर चातुर्वर्ण्य-परिधि के बाहर के (भारत में अथवा भारत के बाहर विद्यमान) राष्ट्र, गण या समूह मनुस्मृति, महाभारत तथा पुराणों में क्षत्रिय जाति के रूप में निर्दिष्ट हैं।”

शूद्रों की स्थिति और ऐतिहासिक संदर्भ

प्राचीन ग्रंथों में कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं, जहाँ शूद्रों को शिक्षा प्राप्त करने, यज्ञ करने और समाज में ऊँचा स्थान प्राप्त करने का अधिकार था। छांदोग्य उपनिषद में रैक्व नामक शूद्र को वेद पढ़ाने का अधिकार था, और ऋग्वेद के मंत्रों के कुछ रचयिता भी शूद्र माने जाते हैं। महर्षि च्यवन ने शूद्र माने जाने वाले अश्विनीकुमारों को सोमपान का अधिकार इन्द्र से बैर लेकर दिलाया था।

वेदकालीन राजा सुदास शूद्र थे। वैदिक परंपरा के अनुसार वे राजर्षि विश्वामित्र के संरक्षक थे। सुदास का राज्याभिषेक वशिष्ठ ने किया था और राजा सुदास  ने अश्वमेध यज्ञ किया था, इसका भी उल्लेख है।  वैदिक युग में शूद्रों को तिरस्कृत नहीं माना जाता था, बल्कि वे समाज का एक अभिन्न अंग थे।

खैरियत सिर्फ इतनी हुई कि शूद्र कभी भी उस निस्सहायता में नहीं पड़े, जो पश्चिमी जगत् की दास-संस्था का लक्षण थी। धार्मिक दृष्टि में शुद्र द्विजों के अधीन थे, प्रायः, उनके दास भी थे, किन्तु, वे सामी अथवा यूरोपीय इतिहास के गुलाम नहीं थे। “शुद्र अपनी देहों, अपने श्रमों, अर्थात्पादक आयुधों तथा भूम्यादि सम्पत्ति के स्वामी थे। शूद्रों की आजीविका के कई ऐसे स्वतन्त्र व्यवसाय थे, जो वैवर्णिकों के तनिक भी अधीन नहीं थे। शूद्र ही, प्रधान रूप से, पशुपालन, धातु-कर्म, बुनाई, बढ़ईगिरी, लुहार, कुम्हार और चर्मकार के काम तथा रसोई आदि हीन तथा उच्च व्यवसायों को अपनाते थे।” शोषण तो भारत में शूद्रों का भी हुआ और खूब हुआ, किन्तु, द्विजों के वे क्रीत दास कभी भी नहीं रहे।

“आपस्तम्ब-धर्मसूत्र का कथन है कि यदि अपने लिए, अपनी मार्या अथवा अपने पुत्र के लिए आर्थिक कठिनाई महसूस हो तो कोई हर्ज नहीं, परन्तु, दासों और मजदूरों का वेतन पहले देना चाहिए।”

मनुस्मृति और वर्ण व्यवस्था की कठोरता

मनुस्मृति के साथ वर्ण व्यवस्था कठोर होती चली गई। इसमें जातियों के लिए निश्चित व्यवसाय निर्धारित कर दिए गए और इसे धर्म का रूप दे दिया गया। यह वही समय था जब समाज में वर्ण-परिवर्तन की संभावना कम हो गई और जातियां स्थायी रूप से बंध गईं। हालाँकि, प्रारंभिक वैदिक युग में इस व्यवस्था में लचीलापन था, जिसके प्रमाण महाभारत और अन्य ग्रंथों में मिलते हैं। वैदिक युग में एक वर्ण से दूसरे वर्ण में परिवर्तन किया जा सकता था।

जाति परिवर्तन और सामाजिक गतिशीलता

इतिहास में कई ऐसे उदाहरण मिलते हैं जहाँ वर्ण परिवर्तन संभव था। ऋषि विश्वामित्र क्षत्रिय कुल में जन्मे थे, लेकिन तपस्या और ज्ञान के आधार पर ब्राह्मण माने गए। महर्षि व्यास धीवर जाति से थे, लेकिन ब्राह्मणों और क्षत्रियों द्वारा पूजनीय बने। पंजाब और अन्य क्षेत्रों में महाभारत काल तक जाति परिवर्तन की परंपरा चलती रही।

आरम्भ में जाति-परिवर्तन पर कड़ी रोक नहीं थी, इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। श्री जयचन्द्र विद्यालंकार ने लिखा है कि “जात-पाँत की ठीक जात-पाँत के रूप में स्थापना 10वीं शताब्दी ई. में आकर हुई है और, उसके बाद भी, मिश्रण पूरी तरह बन्द नहीं हो गया। शहाबुद्दीन गोरी के समय तक हम हिन्दू जातों में वाहर के लोगों को सम्मिलित होते देखते हैं। सन् 1178 ई. में गुजरात के नाबालिग राजा मूलराज द्वितीय की माता से हारकर गोरी की मुस्लिम-सेना का बहुत बड़ा अंश कैद हो गया था। उन कैदियों की दाढ़ी-मूँछ मुँड़वाकर विजेताओं ने सरदारों को तो राजपूतों में शामित कर लिया था और साधारण सिपाहियों को कोलियों, खाँटों, बाब्रियों और मेड़ों में।

आचार्य क्षितिमोहन सेन लिखते हैं कि “पुराने जमाने में इतना बँधेज नहीं था। कलि के पहले असवर्ण विवाह भी चलता था और शूद्र के हाथ से पक्वान्न भी ब्राह्मण लोग ग्रहण करते थे। कलियुग में यह निषिद्ध कैसे हुआ? शाम शास्त्री कहते हैं कि बौद्ध और जैन धर्म का वैराग्य-प्रधान मत और कृच्छ्राचार ही इसके कारण हैं। ऊँचे वर्ण के लोगों ने जीव-हिंसा छोड़ी, शूद्रों ने नहीं छोड़ी, इसलिए इनके हाथ का अन्न निषिद्ध हुआ। राजा राजेन्द्रलाल मित्र कहते हैं कि बौद्ध-पड़ोसियों के अनुरोध से हिन्दुओं ने गोमांस खाना छोड़ा।” जिन्होंने गोमांस खाना नहीं छोड़ा, समाज की दीर्घा में वे नीचे लुढ़क गए।

जाति की प्रथा ने हिन्दू-समाज की सेवा इसी रूप में की है। इस प्रथा का उद्देश्य ही यहाँ आनेवाली हर एक जाति को भारतीय संस्कृति के ढाँचे में कस लेना था। मंगोल, यूनानी, शक, आभीर, यूची और हुण तथा मुस्लिम आक्रमण से पहले आनेवाले तुर्क, जाति-प्रया के जन्म के बाद, जो भी लोग इस देश में आए, उन्हें भारतीय समाज के अन्दर पचाने में सबसे अधिक योगदान इसी प्रथा ने दिया, क्योंकि इस देश में यह समस्या ही नहीं थी कि नवागन्तुक जाति के लोग समाज में कहीं पर रखे जाएं। जातियों की श्रेणियाँ अनेक थीं और वे दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही थीं।

अतएव नवागन्तुक लोगों में से हर एक को अपनी वैयक्तिक अथवा पारिवारिक संस्कृति के अनुसार जाति के ढाँचे में उपयुक्त स्थान आसानी से मिल जाता था।

अब तो जाति-प्रया बिलकुल निन्दित हो गई है और वह टूटने भी लगी है, किन्तु प्राचीन काल में उससे भारतीय संस्कृति को एक लाभ अवश्य हुआ। जब कोई जाति अपने से भिन्न किसी अन्य जाति पर विजयी होती है, तब उसके सामने सवाल यह आता है कि हारी हुई जाति से क्या सलूक किया जाए। अमेरिका और आस्ट्रेलिया में जब यह समस्या खड़ी हुई, तब गोरों ने कालों को चुन-चुनकर मार डाला और स्वयं निष्कंटक होकर उन देशों में बस गए। आज भी अफ्रीका में गोरे और काले का जो सवाल पेश है, उसे सुलझाने का रास्ता गोरों का वही है, जिसे उन्होंने किसी समय अमेरिका और आस्ट्रेलिया में अपनाया था।

लेकिन, आर्यों का मार्ग अहिंसा और प्रेम का मार्ग था। उन्होंने अपने से भिन्न लोगों को मारा नहीं, बल्कि, जाति-प्रथा की विशाल दीर्घा के किसी-न-किसी सोपान पर बिठाकर उन्हें अपने समाज में मिला लिया।”

निष्कर्ष

वर्ण व्यवस्था का मूल आधार व्यवसाय और स्वभाव था, लेकिन कालांतर में यह जन्म पर आधारित हो गई। इससे सामाजिक गतिशीलता सीमित हो गई और जाति भेद कठोर होता चला गया। इतिहास और प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था उतनी कठोर नहीं थी, जितनी बाद में हो गई। अतः, इस विषय पर सम्यक दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है ताकि भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव को समाप्त किया जा सके और एक समतामूलक समाज की स्थापना हो सके।

Shudras and Vedic knowledge    श्रवण कुमार की कहानी

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