ब्राह्मणों द्वारा अन्य वर्णों के लोगो का शोषण
सामान्यतः हम सभी यही पढ़ते या सुनते आए हैं कि प्राचीन भारत में ब्राह्मणों द्वारा अन्य वर्णों के लोगो का शोषण किया जाता था। वर्तमान स्थिति भी अन्य जातियों के प्रति कुछ ऐसा ही संकेत करती है जो कि वर्तमान स्थिति के लिए सत्य भी है परंतु इस बात से ये नहीं सिद्ध होता है कि प्राचीन भारत में भी ऐसा ही था, कई सारे भारतीय ग्रंथों में ऐसे घटनाओं का वर्णन है जिसमें ब्रह्मण गरीब है जो जीवन यापन के लिए खेतों में काम करता है, वन में जाकर जो कुछ भी मिलता है उसी से ही अपना एवं अपने कुटुंब का जीवनयापन करता हैं । यहां पर ध्यान देने योग्य विषय यह है कि यदि सारे ब्राह्मण दूसरों का मात्र शोषण ही करते तो फिर वो गरीब या फिर खेतों में कार्य करने वाले कैसे होते?
आपने किसी ऐसे अंग्रेज को नहीं जानते होंगे जो भारत में रहकर हम भारतीयों का शोषण भी किया हो एवं गरीब भी हो, ऐसा कदापि संभव नहीं है ।
वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड के 20वें सर्ग में त्रिजट नामक ब्राह्मण की गरीबी और उसकी सहायता का वर्णन है। यह कहानी प्राचीन भारत में ब्राह्मणों की स्थिति के बारे में एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है।कैकेयी के इच्छानुसार राम, लक्ष्मण और सीता सहित वनवास जाने की तैयारी में है, जाने से पहले राम सारा धन दीन, दुखियों, गरीबों, नौकरों को बांट रहे हैं। तभी त्रिजट ब्रह्मण अपने पत्नी के कहने पर उनके पास आता है और आगे की घटना कुछ इस प्रकार है-वहाँ पर गर्ग गोत्री एक ब्राह्मण था, जिसका नाम त्रिजट था और (चिन्ता के मारे) उसका शरीर पीला पड़ गया था ॥ २९॥
वह उच्छवृत्ति से निर्वाह करता था, वह नित्य फावड़ा, कुदाल तथा हल ले वन जाता और फलमूल जो कुछ वहाँ मिलते उनसे अपने कुटुम्ब का भरण पोषण करता था। उस बूढ़े की युवती स्त्री, जो दारिद्रय से पीड़ित थी, छोटे छोटे लड़कों को ला कर, ब्राह्मण से बोली- अब इन फावड़ा कुल्हाड़ी को तो पटक दो और मैं जो कुछ कहूँ, उसे करो ॥ ३० ॥ ३१ ॥
यदि तुम अभी धर्मज्ञ श्रीरामचन्द्र जी के पास जाओगे तो तुम्हें कुछ न कुछ अवश्य मिल जायगा । स्त्री का वचन सुन, ब्राह्मण पुराने फटे चीथड़े से किसी प्रकार अपना शरीर ढक ॥ ३२ ॥
श्रीरामचन्द्र जी के घर की ओर चल दिया। उस त्रिजट का तेज भृगु और अंगिरा के समान थो। (अर्थात यद्यपि वह ब्राह्मण चिथड़ा लपेटे हुए था, तथापि यह ऋषियों के समान सदाचारी होने के कारण वड़ा तेजस्वी था) अतः वह बिना रोक टोक रामभवन की पांचवीं ड्योढ़ी लाँघ भीतर पहुँचा, जहां लोगों की भीड़ लगी थी। वहाँ जा त्रिजट ने राजकुमार श्रीरामचन्द्र जी से कहा। ।।३३।। ३४।।
हे महायशस्वी राजकुमार | मैं निर्धन हूँ, तिस पर मेरे बहुत से लड़के वाले भो हैं। मैं वन में जा, उच्छ्वृत्ति से जो कुछ पाता हूँ, उसी से निर्वाह करता हूँ। मेरी ओर भी दयादृष्टि होनी चाहिये ।।३५ ॥
यह सुन श्रीरामचन्द्र जो ने उससे परिहास पूर्वक कहा- हमारे पास हज़ारों गौएँ हैं, जिनको अब तक मैंने नहीं दिया है॥ ३६॥
सो तुम अपनी लाठी फेंको, जितनी दूर तुम्हारी लाठी जा कर गिरेगी, उतने बीच में जितनी गौएँ खड़ी हो सकेंगी, उतनी गौएँ मैं तुम्हें दूँगा। श्रीरामचन्द्र जी की यह बात सुन, त्रिजट ने वह चिथड़ा कस कर, तुरन्त कमर में लपेटा ॥ ३७ ॥
और लाठी घुमा तथा अपना सारा बल लगा उसे फेंका। वह लाठी सरयू नदी के उस पार ॥ ३८ ॥
जहाँ हज़ारों गायें और बैलों का झुण्ड था, जा गिरी। उस समय श्रीरामचन्द्र जी ने उस ब्राह्मण को वहाँ से सरयू पार तक जितनी गौएँ आ सकती थीं, उन सब को त्रिजट के आश्रम पर भिजवा दिया ॥ ३६ ॥
और उस गर्ग गोत्री ब्राह्मण को सानत्वना देते हुए श्रीरामचन्द्र जी उससे बोले- हे ब्राह्मण ! क्रोध मत करना। क्योंकि मैंने जो कहा था, वह हंसी में कहा था ॥ ४० ॥
तुम्हारे अतिशय बल की परीक्षा करने के लिये ही मैंने यह बात तुमसे कही थी। उतनी गौएँ तो आपके स्थान पर पहुँच गईं अब इन गौएँ के अतिरिक्त और जो कुछ आप चाहते हों सो कहिये ॥ ४१ ॥
मैं सत्य कहता हूँ किं, आपके लिये किसी वस्तु के देने में किसी प्रकार की रोक टोक नहीं है। क्योंकि मेरा समस्त धन ब्राह्मणों ही के लिये तो है। यदि मैं अपनी पैदा की हुई धन सम्पति आप सरीखे ब्राह्मणों को दे दूँ, तो मुझे वड़ा आनन्द प्राप्त हो और मुझे यश मी मिले ॥ ४२ ॥
तब द्विजश्रेष्ठ त्रिजट, अपनी स्त्री सहित प्रमुदित मन से और भी असंख्य गौ ले तथा बल, यश, प्रीति और सुख की वृद्धि के लिये श्रीरामचन्द्र जी को अनेक आशीर्वाद देता हुआ चला गया ॥ ४३ ॥
श्रीरामचन्द्र जी ने अपनी शुद्ध और गाढी कमाई के धन को बड़े आदर के साथ अपने सुहृदों को बांटा ॥ ४४ ॥
उस समय ऐसा कोई ब्राह्मण सुहृद, नौकर, निर्धन और भिक्षुक न था, जिसका यथायोग्य दान मान से सत्कार श्रीरामचन्द्र ने न किया हो।।४५।।
इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में सभी ब्राह्मण संपन्न और शोषक नहीं थे। कई ब्राह्मण अपने जीवन-यापन के लिए कठिन परिश्रम करते थे और वन में जाकर फल-फूल इकट्ठा करते थे। यह भी सिद्ध होता है कि समाज के अन्य वर्गों की तरह ब्राह्मणों में भी गरीबी और कठिनाइयों का सामना करने वाले लोग थे।
वाल्मीकि रामायण के इस प्रसंग से यह भी पता चलता है कि उस समय समाज में सहानुभूति और दानशीलता का महत्व था। श्रीराम ने त्रिजट को उसकी जरूरत के हिसाब से सहायता दी, जो कि प्राचीन भारतीय समाज के आदर्शों को दर्शाता है।